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लेखनी कहानी -22-Jun-2022 रात्रि चौपाल

भाग 3 : नजदीक आने की होड़ 


जब जिले में कोई नया कलेक्टर आता है तो उसके नजदीक आने की हर अधिकारी , कर्मचारी और जन प्रतिनिधियों में होड़ सी लग जाती है । सबको ऐसा लगता है कि चाहे अपने पारिवारिक सदस्यों के नजदीक हों अथवा ना हों पर स्वर्ग का द्वार कलेक्टर के नजदीक रहने से ही खुलता है । कलेक्टर  के सबसे नजदीकी आदमियों में या ती कलेक्टर का पी ए होता है या फिर एडीएम  । अतिरिक्त जिला कलेक्टर का पद यदि जिले में एक ही हो तो वह स्वाभाविक रूप से कलेक्टर का सबसे नजदीकी अधिकारी हो जाता है बशर्ते कि उसने अखाड़े में कलेक्टर के पी ए को धूल चटा दी हो । किन्तु समस्या तो वहां आती है जब जिले में दो या अधिक अतिरिक्त कलेक्टर पदस्थापित हों । फिर उनमें उसी तरह का शीत युद्ध होता है जैसा कि कोई जमाने में अमरीका और रूस में होता था । और यह शीत युद्ध अनंत काल तक चलता रहता है । कलेक्टर बदल जाते हैं , एडीएम बदल जाते हैं मगर शीत युद्ध वहीं का वहीं बरकरार रहता है । 

कुछ जगह ऐसा भी देखा गया है कि जब जिले में दो चार वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी यथा जिला परिषद में मुख्य कार्यकारी अधिकारी , जिला रसद अधिकारी , उपनिदेशक  महिला एवं बाल विकास विभाग, भूप्रबंध अधिकारी एवं पदेन राजस्व अपील प्राधिकारी जैसे अधिकारी पदस्थापित हों तो इन सभी अधिकारियों में "म्यूजिकल चेयर रेस" जैसी स्पर्धा शुरू हो जाती है और फिर खेल शुरू होता है एक दूसरे की चुगली करने का , अफवाहें उड़ाने का, कान भरने का और इधर की उधर तथा उधर की इधर करने का । इसमें जो अधिकारी झूठ बोलने में , मक्कारी करने में और चापलूसी करने में सर्वश्रेष्ठ हो , वह कलेक्टर के सबसे नजदीक हो जाता है । जो अधिकारी यह किला फतेह कर लेता है वह अपने आप को "नैक कम कलेक्टर" मानने लग जाता है । 

ऐसा नहीं है कि एक बार किला फतेह करने के बाद कलेक्टर साहब की कृपा स्थाई रूप से उन पर होती है । कलेक्टर का क्या है , जब चाहे कुपित होने का सर्वाधिकार हमेशा उनके पास सुरक्षित है । गलती चाहे स्वयं कलेक्टर की ही हो मगर नजला तो एडीएम पर ही गिरेगा । कलेक्टर के कृपा पात्र को अग्नि परीक्षा से रोज ही गुजरना होगा । कलेक्टर के नजदीक  रहने के लिए नित नए षड्यंत्र भी गढने पड़ेंगे । तब जाकर कहीं कलेक्टर का कृपा रूपि "प्रसाद" मिलता है । इसके लिए जितनी तपस्या करनी पड़ती है अगर उसकी एक चौथाई भी तपस्या भगवान के लिए कर ले तो उसका उद्धार ही हो जाये । मगर मोक्ष किसे चाहिए  ? यहां तो "मलाई" की दरकार है सबको । कलेक्टर के नजदीक  आने में कभी कभी कोई उपखंड अधिकारी भी बाजी मार ले जाता है और वह जिले का सबसे बड़ा "जागीरदार" बन जाता है । 

यह प्रकिया ना केवल स्टेट सर्विस के अधिकारियों में चलती है अपितु तहसीलदारों , इंजीनियरों और अनेक जिला स्तरीय अधिकारियों में भी चलती रहती है । बाबू लोग भी इस प्रक्रिया से गुजरते हैं क्योंकि कलेक्ट्रेट की "मलाईदार" कुर्सी पर सब बाबू लोग बैठना चाहते हैं । जो कलेक्टर के नजदीक होगा "मलाईदार" कुर्सी भी उसी को मिलेगी । इसके लिए बाबू लोग नजदीक आने की "तिकड़म" भी बैठाते हैं । कलेक्टर के पी ए के बारे में तो मैं पिछले भाग में बता ही चुका हूं तो अब उस पर बात नहीं करूंगा । न जाने किस किस से सिफारिश कराई जाती है यह बताने के लिए कि "फलां" बाबूजी बहुत अच्छे हैं, उन्हें फलां सीट दे दो  । अरे, अगर आप वाकई में बहुत अच्छे हैं तो किसी से कहलवाने की जरूरत ही क्या है ? क्या गुलाब कभी अपने बारे में किसी से सिफारिश लगवाता है ? यदि आप अच्छे हैं तो यह "खुशबू" स्वत: चारों ओर बिखरेगी  । सिफारिश कौन  लगवाता है ? जो कमजोर होता है वही ना ? 

उसके बाद सिलसिला शुरू होता है जन प्रतिनिधियों का । अर्थात सरपंच , प्रधान , पार्षद , नगर पालिका के चेयरमैन,  हारी हुई पार्टी के पदाधिकारी वगैरह वगैरह  । विभिन्न समाजों के प्रतिनिधि यथा मीणा , दलित,  अल्पसंख्यक,  सिख , ईसाई , जाट, गूजर , ब्राह्मण,  राजपूत का । यदि कलेक्टर उनकी जाति का आ जाता है तो उस जाति का बच्चा बच्चा खुद को कलेक्टर का बाप समझने लग जाता है । यहां पर ऐसी भावना नहीं थी क्योंकि कलेक्टर एक "कायस्थ" था और उस जिले में कायस्थ कुछ ही संख्या में थे । ये लोग इसलिए नजदीक आना चाहते हैं कि वे जानते हैं कि कलेक्टर से जनता का काम पड़ता ही रहता है । वे जनता को यह संदेश देना चाहते हैं कि कलेक्टर साहब उनके "खास" आदमी हैं और वे कलेक्टर से कोई भी काम करवा सकते हैं । इसके एवज में जनता से वह केवल "नजराना, फसलाना या शुकराना वसूल कर लेता है । बस, सारी लड़ाई इसी "नजराने" को लेकर है । और यह क्रम निरंतर चलता रहता है । 

अब आते हैं "स्वयंभू" महान व्यक्तियों पर । ये लोग स्वयं में इतने महान होते हैं कि ये खुद ही "भ्रष्टाचार निरोधक मंच" के अध्यक्ष या महासचिव बन जाते हैं । कोई "अंबेडकर विचार मंच" तो कोई "मानवाधिकार सभा" और कोई "सूचना क्रांतिवीर फोरम" का पदाधिकारी बन जाता है । ये सब लोग भी अपनी अपनी गोटी "फिट" करने की फिराक में रहते हैं । ऐसे लोग कलेक्टर से मिलने के समय कोई छोटी मोटी भेंट जरूर लाते हैं । जिस भेंट में जितना आकर्षण,  उतनी ही "नजदीकी" होने की संभावना बन जाती है । इस "नजदकी"
 रिश्ते का फायदा उठाना बखूबी जानते हैं लोग । "दरबारी संस्कृति" का भी एक अलग ही आनंद होता है । किसी के बड़े होने या ना होने का पता कलेक्टर से नजदीकी से ही लगता है । 

उपर्युक्त के अतिरिक्त मीडिया का भी अहम रोल रहता है । सभी पत्रकार एक एक करके मिलने आते हैं और वे भी ख्वाहिश रखते हैं कि उनके संबंध कलेक्टर से अच्छे रहें । एक कहावत है कि "मंदिर में भगवान " की प्रसिद्धि वहां का पुजारी ही करवाता है । इसलिए यह कलेक्टर पर निर्भर करता है कि वह "इन पत्रकारों" का कितना मान सम्मान करता है   यदि उसे "भगवान" बनना है तो "भक्तों" का खयाल तो रखना ही होगा । अतः कलेक्टर के संबंध मीडिया कर्मियों से भी बहुत नजदीकी हो जाते हैं । 

तो कलेक्टर के नजदीक आने की "रस्साकस्सी" प्रतियोगिता अनेक स्तरों पर,चलती है । धूर्त,  मक्कार,  बेईमान,  लफ्फाज, बेशर्म, बेगैरत इंसान इसमें बाजी मार ले जाते हैं । शरीफ, ईमानदार,  सरल हृदय वाले , संवेदनशील,  सच्चे आदमी दूर खड़े खड़े तमाशा देखते रहते हैं । मलाई के हकदार तो चमचे और चापलूस ही होते हैं । जिसकी चमचागिरी जितनी ज्यादा "रसीली" होती है उसे "प्रसाद" भी उतना ही अधिक मिलता है । 

किसी ने सही कहा है कि "सत्ता के खेल निराले होते हैं । यहां रात में भी उजाले होते हैं" । 

हरिशंकर गोयल "हरि" 
29.6.22 
 

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8 Comments

MR SID

10-Aug-2022 08:42 AM

Nice

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Sachin dev

09-Aug-2022 06:27 PM

Very nice

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Muskan khan

09-Aug-2022 05:59 PM

Nice

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